अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का उत्सव शुरू हो गया है। हिंदू संस्कारों में जन्म से लेकर मृत्यु तक राम का नाम किसी ना किसी रूप में आता ही है। राम नाम के अर्थ को संतों और विद्वानों ने अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की है। इसके बारे में जब हमने अध्ययन किया तो पाया कि हर अर्थ राम को सर्वव्यापी बनाता है।
READ MORE….हर अर्थ राम को सर्वव्यापी बनाता है।
भगवान विष्णु को राम अवतार क्यों लेना पड़ा इसके पीछे श्रीमद्भागवत, वाल्मीकि रामायण, हरिवंशपुराण और रामचरित मानस में अलग-अलग कारणों की बात की गई हैं। पर सब बातों को साथ में लेकर समझें तो ऐसे 2 श्राप और 2 वरदान हैं जिसके कारण उनको राम के रूप में अवतार लेना। आइए इस पोस्ट में जानते हैं उन श्राप और वरदान के बारे में।
श्रीमद्भागवत महापुराण के तीसरे अध्याय में एक कहानी है। जिसमें सृष्टि के आरंभ में ब्रह्माजी ने कई लोकों की रचना करने के लिए तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतरित हुए। आपको बता दें कि ये रूप भगवान विष्णु के पहले अवतार माने जाते हैं।
भगवान विष्णु निवास स्थान वैकुंठलोक में जय और विजय नाम के दो द्वारपाल द्वार पर खड़े रहते थे। एक बार की बात है सनकादि मुनि विष्णु के दर्शन करने वैकुंठ धाम पधारे। वहीं सनकादि मुनि द्वार से निकलकर बाहर जाने लगे तो जय और विजय द्वारपाल उनकी हंसी उड़ाने लगे और उन्हें रोक लिया।
मुनि को ये बात बुरी लगी और उन्होंने दोनों को तीन जन्म तक राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। क्षमा मांगने पर सनकादि मुनि ने कहा कि तीनों ही जन्म में तुम्हारा अंत स्वयं भगवान श्री हरि के हाथों होगा और तीन जन्म के उपरांत तुम्हें मोक्ष मिलेगी। पहले जन्म में जय और विजय ने हिरण्यकश्यप व हिरण्याक्ष के रूप में जन्म लिया। भगवान विष्णु ने तब वराह रूप में हिरण्याक्ष का तथा नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया था।
दूसरे जन्म में जय-विजय ने रावण और कुंभकर्ण का जन्म लिया था। जिनका वध करने के लिए भगवान विष्णु को राम अवतार लेना पड़ा था। तीसरे जन्म में दोनों शिशुपाल और दंत वक्र के रूप में जन्म लिए। इस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण ने इनका वध करके इनको श्राप से मुक्ति दिलाकर इनका कल्याण किया।
रामचरितमानस को पढ़ते हुए जब आप बाल कांड से जुड़े अध्याय को पढ़ रहे हो तब आपने ध्यान दिया होगा कि वहां एक प्रसंग आता है कि एक बार नारद मुनि हिमालय में जाकर तपस्या कर रहे थे। और वह तपस्या कई वर्षों तक जारी रही। तब देवताओं के राजा इंद्र को लगा कि नारद मुनि अपने तप से इंद्र के पद को अपना पद करना चाहते हैं। इसलिए इंद्र ने कामदेव को आदेश देते हुए कहा कि नारद मुनि की तपस्या को किसी भी रूप में भंग कर दें।
इंद्र की आज्ञा मिलते ही कामदेव उस स्थान पर पहुंचे जहां नारद मुनि घोर तपस्या में लीन थे। इसके बाद कामदेव ने नारद मुनि पर काम बाण चलाया जिससे उनकी घोर तपस्या भंग हो गई। ऐसे में जब नारद ने अपनी आंखें खोली और कामदेव की तरफ देखा तो कामदेव ने उनसे कहा कि उनकी तपस्या भंग करने में उनकी कोई रुचि नहीं थी वो तो केवल अपने राजा की आज्ञा का पालन कर रहे थे। वो उन्हें भगवान शिव जैसा दण्ड न दें।
कामदेव से ऐसी बात सुनकर नारद मुनि मुस्कुराते हुए उन्हें क्षमा कर दिया। माफी मिल गई तो कामदेव ने कहा- मैंने भगवान शिव की तपस्या भंग की थी तो उन्होंने मुझे भस्म कर दिया था। उन्होंने काम को जीत लिया, लेकिन क्रोध से हार गए। आपने तो क्रोध को भी जीतकर मुझे क्षमा कर दिया। ऐसे में आप शिव से भी बड़े संन्यासी हो गए।
ये बात सुनकर नारद के मन में अहंकार उपज गया। वह यह बताने भगवान शिव के पास गए जिसपर भगवान शिव ने कहा कि ये आपने उन्हें तो बता दिया, पर भगवान विष्णु को भूलकर भी यह बात न बताएं। यह बात नारद ने अनसुनी कर दी और वे सीधे वैकुंठ लोक की तरफ प्रस्थान कर गए। जब यही बात उन्होंने भगवान विष्णु को बताई तो भगवान विष्णु समझ गए कि नारद को अहंकार हो गया है और उनके इस अहंकार का निस्तारण तुरंत करना होगा।
भगवान विष्णु ने अपनी माया से एक नगर बसाया। जिसका राजा था शीलनिधि और उसकी बेटी थी विश्वमोहिनी, जिसका स्वयंवर होना था। नारद जब उस नगर में पहुंचे तो विश्वमोहिनी को देखकर ये सोचने लगे कि अब मुझे भी विवाह कर लेना चाहिए। उन्होंने भगवान विष्णु के पास जाकर कहा कि आप अपनी माया से मुझे अपना रूप दे दीजिए ताकि विश्वमोहिनी अपने स्वयंवर में मुझे ही चुन ले।
भगवान विष्णु ने नारद का मुंह बंदर जैसा बना दिया। विष्णु खुद स्वयंवर में पहुंचे और विश्वमोहिनी ने उन्हें अपना वर चुन लिया। नारद पर सब हंस रहे थे। ये देख नारद ने भगवान विष्णु को श्राप दे दिया कि तुमने मुझे जो स्त्री वियोग दिया है, ऐसे में तुम भी मानव शरीर को धारण कर 14 वर्ष स्त्री वियोग में दर-दर भटकोगे। और जो मुझे आपने बंदर का रूप दिया तो ऐसे में यही बंदर तुम्हारी पत्नी को खोजने में तुम्हारी सहायता करेंगे।नारद का ये श्राप भगवान विष्णु ने ग्रहण किया। इस तरह दूसरा श्राप राम के अवतार का कारण बना।
श्रीमद् भागवत महापुराण कहता है, सतयुग में मनु और शतरूपा जो ब्रह्मा के ही अंश से जन्मे थे, दोनों ने संतान पाने के लिए भगवान विष्णु की बरसों तक तपस्या की। उनकी तपस्या से खुश होकर भगवान विष्णु प्रकट हुए। उन्होंने मनु और शतरूपा से पूछा कि क्या वरदान चाहिए।
दोनों ने कहा कि भगवन, हमें आपके जैसी संतान चाहिए। भगवान विष्णु बोले- मेरे जैसा तो बस मैं खुद हूं, तो मैं खुद ही तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा। त्रेतायुग में तुम राजा दशरथ और शतरूपा कौशल्या बनकर जन्मेंगी। मैं तुम्हारे पुत्र राम के रूप में जन्म लूंगा। इस तरह मनु और शतरूपा को मिला वरदान राम जन्म का कारण बना।
वाल्मीकि रामायण के मुताबिक, भगवान ब्रह्मा के लिए रावण ने कठोर तपस्या की। ब्रह्मा प्रसन्न हुए और रावण से वरदान मांगने को कहा। रावण ने कहा कि मुझे अमर होने का वरदान दीजिए। ब्रह्मा जी ने कहा कि इस संसार में कोई भी अमर नहीं है, जो पैदा हुआ है उसे मरना ही होगा। हां, तुम अपने मरने की परिस्थितियां खुद तय कर सकते हो।
रावण ने कहा कि ठीक है, आप मुझे वरदान दीजिए कि मुझे कोई न कोई देवता या न कोई दानव, ना नाग, न किन्नर, न गंधर्व, न यक्ष, न गण या कोई देवी भी ना मार सके। और मुझे कोई हिंसक पशु भी ना मार सके। ब्रह्मा जी ने उसे ये वरदान दे दिया। पर जैसा कि आपको ज्ञात होगा कि रावण ने इस वरदान में मनुष्य और वानर से न मरने की वरदान नहीं मांगा था। इन दोनों को तुच्छ मानकर छोड़ दिया था। रावण को ब्रह्मा का दिया यह वरदान भी एक कारण था कि भगवान विष्णु को मानव रूप में आकर राम का अवतार लेना पड़ा क्योंकि रावण को कोई साधारण मानव ही मार सकता था।
ऐसे में ये दो वरदान और श्राप थे जो भगवान विष्णु को वैकुंठधाम छोड़कर, पृथ्वी पर आने का मार्ग बना। वैसे भी भगवान के आज्ञा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता है ऐसे में इस श्राप और वरदान में भी भगवान की ही इच्छा और आदेश था। जिसे उन्होंने राम अवतार और फिर कृष्ण अवतार में पूर्ण किया।
READ MORE