यूपी में वह 10 फीसद वोटों के साथ भारतीय जनता पार्टी के 7. 5 मतों को पार पाने व जीत की मंजिल तय करने में सफल रही थी
उत्तर -प्रदेश : यह साल था 1989 जब लोक सभा की बिजनौर सीट पर जनता दल के निकटतम प्रतिद्वंदी को करीबन 10,000 मतों के अंतराल से चित कर मायावती ने पहली बार लोक -सभा में एंट्री की थी। हालांकि बहुजन समाजवादी पार्टी के साथ -साथ खुद बहनजी के लिए यह एक व्यक्तिगत पीड़ा से कम साबित नहीं हुयी जब इसी चुनाव में उनके राजनीतिक गुरु रहे कांशी राम चुनाव हार गए। यह अलग बात थी कि इसी इलेक्शन में पार्टी का प्रदर्शन काफी उम्दा व उत्साहजनक रहा था। राज्य में उनकी पार्टी 10 फीसद वोटों के साथ भारतीय जनता पार्टी 7. 5 मतों को पार पाने व जीत की मंजिल तय करने में सफल रही थी।
इस चुनाव से न सिर्फ मायावती को संसद तक पहुँचाया , बल्कि इसी दौरान दिल्ली के राजनीतिक पटल पर एक ऐसा देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल देने का सपना पाल रखा था. बाद में हुआ भी कुछ ऐसा ही. आगे चलकर मायावती ने न सिर्फ सरकारें बनाईं.बल्कि सरकारें गिराईं भी .
इस चुनाव से न सिर्फ मायावती को संसद तक पहुँचाया , बल्कि इसी दौरान दिल्ली के राजनीतिक पटल पर एंट्री एक ऐसे शख्श की एंट्री हुई जिसने देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल देने का सपना पाल रखा था. बाद में हुआ भी कुछ ऐसा ही. आगे चलकर मायावती ने न सिर्फ सरकारें बनाईं..बल्कि सरकारें गिराईं भी . इस चुनाव से न सिर्फ मायावती को संसद तक पहुँचाया , बल्कि इसी दौरान देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल देने का सपना पाल रखा था . बाद में हुआ भी कुछ ऐसा ही जब आगे चलकर मायावती ने न सिर्फ सरकारें बनाईं बल्कि सरकारों को बेपटरी भी कर दिया .
और इसी दरम्यान एक ऐसा भी वक्त आया जब ऐसा क्या हुआ जब प्रदेश में भाजपा और बसपा के 6-6 महीने सरकार चलाने के फार्मूले पर पानी फिर गया.
सवाल यह भी उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ था और क्या था वह फैसला जिसने न सिर्फ बसपा और भाजपा के बीच एक नई राजनीतिक लकीर खींच दी, बल्कि आगे चलकर यह 1999 में दिल्ली में वाजपेयी सरकार को गिराने का कारण भी बना? आखिर क्यों मायावती ने ‘विश्वासघात का जवाब विश्वासघात’ से देने की सोची ?
तब दौर था उस समय का 1990 में दिल्ली की गद्दी पर वी. पी. सिंह की सरकार का शासन खत्म हो चुका था.और कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर को गद्दी मिली थी. और, इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया था कि चुनाव अब बहुत दूर नहीं रह गया है. हुआ भी कुछ ऐसा ही. इस बीच कांग्रेस ने एक मामूली बहाना बनाकर कुछ ही महीनों में चन्द्रशेखर सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. एक ओर सरकारों की लगातार जारी अस्थिरता से राजनीतिक हलकों में व्यापक चिंता पैदा हो चली थी, तो दूसरी ओर अस्थिरता के इस दौर में मायावती और बसपा भी भारी संकट से जूझ रहे थे. मानो मायावती से राजनीति रूठ सी गई हो. उन्होंने 1991 के लोकसभा चुनाव में फिर से बिजनौर और हरिद्वार से चुनाव लड़ा. दोनों जगहों से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. मायावती ने नवंबर 1991 में बुलंदशर से उपचुनाव लड़ा. लेकिन एक बार फिर उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. लगातार हार से हताश मायावती ने 1992 में न केवल अपना निर्वाचन क्षेत्र बदला बल्कि राज्य भी बदलने का फैसला कर लिया. वह चुनाव लड़ने पंजाब के होशियारपुर पहुंचीं. लेकिन, भाग्य ने यहां भी उनका साथ नहीं दिया .
लगातार हार और बसपा के खराब प्रदर्शन ने मायावती को गहरे अवसाद (डिप्रेशन) में भी डाल दिया था
और उधर लगातार हार और बसपा के खराब प्रदर्शन ने मायावती को गहरे अवसाद (डिप्रेशन) में डाल दिया था . कांशीराम को छोड़ दें तो बसपा का कोई भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हो सका. हालांकि, हालात तब बेहतर होने लगे जब 1993 में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए सपा और बसपा फिर से एक साथ आ गए. सपा-बसपा की इस राजनीतिक जुगलबंदी ने मुलायम सिंह यादव को यूपी की सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया. इस नई बनी व्यवस्था में मायावती ने अपने पास कम प्रोफाइल रखी. ऐसा करने की सलाह मायावती को कांशीराम ने खुद दिया था. क्योंकि एक ओर जहां मुलायम सिंह यादव उस दौर में महिला राजनेताओं से सावधानी बरत कर चल रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर मायावती किसी भी तरह की राजनीतिक समझौते और मोल-भाव को लेकर मुलायम के साथ काफी स्पष्ट और मुखर थीं .
ऐसा वक्त भी आया कि प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए.लेकिन किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और न ही किसी गठबंधन को लेकर बात बन पाई और कुल मिलाकर. राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ चुका था राज्य
और समय गुजरता रहा. 1996 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए. किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और न ही किसी गठबंधन को लेकर बात बन पाई. राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ चुका था .
जब बसपा ने कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा से हाथ मिला लिया
यह वही वक्त था जब बसपा ने कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा से हाथ मिला लिया और तब दोनों पार्टियों का मकसद भी एक ही था. मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को सत्ता में आने के लिए दोनों को एक दूसरे के समर्थन की आवश्यकता का एहसास हुआ. तत्कालीन यूपी बीजेपी प्रमुख कल्याण सिंह की आपत्तियों के बावजूद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस राजनीतिक संगम में जीत की धारा नजर आई.
गठबंधन सरकार में मायावती को मिली सीख , जब कांशीराम हुए थे सतर्क
हालांकि, मायावती के पहले कार्यकाल के अनुभव से मिली सीख के बाद कांशीराम गठबंधन सरकार की शर्तों को लेकर थोड़े -थोड़े सतर्क भी थे . दोनों पार्टियां मंत्रिपरिषद में बराबर की हिस्सेदारी पर राजी हुईं. स्पीकर का पद बीजेपी के खाते में गया. साथ ही यह भी तय हुआ कि दोनों पार्टियां 6-6 महीने के लिए बारी-बारी से अपना मुख्यमंत्री बनाएंगी.
गठबंधन सरकार में कांशी राम को मायावती पर काफी भरोसा भी था , पर आडवाणी व वाजपेयी को नहीं थी उम्मीद
राजनीतिक रूप से कांशीराम को मायावती पर काफी भरोसा था.और वो वह अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे. वहीं दूसरी ओर आडवाणी और वाजपेयी को मायावती पर भरोसा नहीं था. वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कांशीराम खुद बैठें. इससे पहले कि गठबंधन अंतिम रूप ले पाता उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. इसलिए, उन्होंने दूसरी बार मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती को चुना. लगातार हार से हताश मायावती का सितारा एक बार फिर चमक उठा. राज्य से राष्ट्रपति शासन खत्म करने के लिए बीजेपी ने मुख्यमंत्री के तौर पर उनका समर्थन किया.
BJP और BSP बीच अनुचित सौदा
21 मार्च 1997 को मायावती ने दूसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल शुरू किया. भाजपा नेता कल्याण सिंह इस बात से नाराज थे. उन्होंने BJP और BSP के बीच हुए सौदे को अनुचित करार दिया. वह दोनों दलों के बीच मंत्री पद के बराबर बंटवारे के विरोध में थे. क्योंकि, भाजपा के पास बसपा से 100 सीटें अधिक थीं. कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग के एक मजबूत नेता थे और वह मायावती की सरकार में नंबर 2 के पायदान को लेकर असहज थे. इसके साथ ही मायावती को इस बात का भी एहसास हो चला था कि अगर यूपी की राजनीति में अपनी जगह बनानी है तो उन्हें यादव नेता मुलायम सिंह और लोध नेता कल्याण सिंह से पार पाना होगा. रास्ता कठिन था, क्योंकि दोनों ने लंबी राजनीतिक पारी खेली रखी थी.
जब 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई
इसके बाद भाजपा, सपा और बसपा ने अपना-अपना जनाधार बढ़ाया और 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद मुस्लिमों का वोट बैंक कांग्रेस का साथ छोड़कर सपा के साथ चला गया। बसपा ने भी वंचित समाज के वोट बैंक पर कब्जा कर लिया। भाजपा कांग्रेस के अमेठी के किले को पिछले चुनाव में ही ध्वस्त कर चुकी है।अगर राहुल रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा और 1998 में कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी।
अ गर राहुल रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा। 1977 और 1998 में कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी।
इस चुनाव से न सिर्फ मायावती को संसद तक पहुँचाया , बल्कि इसी दौरान दिल्ली के राजनीतिक पटल पर एक ऐसा देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल देने का सपना पाल रखा था. बाद में हुआ भी कुछ ऐसा ही. आगे चलकर मायावती ने न सिर्फ सरकारें बनाईं..बल्कि सरकारें गिराईं भी . इस चुनाव से न सिर्फ मायावती को संसद तक पहुँचाया , बल्कि इसी दौरान दिल्ली के राजनीतिक पटल पर जिसने देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल देने का सपना पाल रखा था .
और इसी दरम्यान एक ऐसा भी वक्त आया जब ऐसा क्या हुआ जब प्रदेश में भाजपा और बसपा के 6-6 महीने सरकार चलाने के फार्मूले पर पानी फिर गया.
सवाल यह भी उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ था और क्या था वह फैसला जिसने न सिर्फ बसपा और भाजपा के बीच एक नई राजनीतिक लकीर खींच दी, बल्कि आगे चलकर यह 1999 में दिल्ली में वाजपेयी सरकार को गिराने का कारण भी बना? आखिर क्यों मायावती ने ‘विश्वासघात का जवाब विश्वासघात’ से देने की सोची ?
तब दौर था उस समय का 1990 में दिल्ली की गद्दी पर वी. पी. सिंह की सरकार का शासन खत्म हो चुका था.और कांग्रेस के समर्थन से चन्द्रशेखर को गद्दी मिली थी. और, इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया था कि चुनाव अब बहुत दूर नहीं रह गया है. हुआ भी कुछ ऐसा ही. इस बीच कांग्रेस ने एक मामूली बहाना बनाकर कुछ ही महीनों में चन्द्रशेखर सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. एक ओर सरकारों की लगातार जारी अस्थिरता से राजनीतिक हलकों में व्यापक चिंता पैदा हो चली थी, तो दूसरी ओर अस्थिरता के इस दौर में मायावती और बसपा भी भारी संकट से जूझ रहे थे. मानो मायावती से राजनीति रूठ सी गई हो. उन्होंने 1991 के लोकसभा चुनाव में फिर से बिजनौर और हरिद्वार से चुनाव लड़ा. दोनों जगहों से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. मायावती ने नवंबर 1991 में बुलंदशहर से उपचुनाव लड़ा. लेकिन एक बार फिर उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. लगातार हार से हताश मायावती ने 1992 में न केवल अपना निर्वाचन क्षेत्र बदला बल्कि राज्य भी बदलने का फैसला कर लिया. वह चुनाव लड़ने पंजाब के होशियारपुर पहुंचीं. लेकिन, भाग्य ने यहां भी उनका साथ नहीं दिया .
जब लगातार हार ने मायावती को अवसाद में डाल दिया
लगातार हार और बसपा के खराब प्रदर्शन ने मायावती को गहरे अवसाद (डिप्रेशन) में भी डाल दिया था और उधर लगातार हार और बसपा के खराब प्रदर्शन ने मायावती को गहरे अवसाद (डिप्रेशन) में डाल दिया था . कांशीराम को छोड़ दें तो बसपा का कोई भी उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हो सका. हालांकि, हालात तब बेहतर होने लगे जब 1993 में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए सपा और बसपा फिर से एक साथ आ गए .
मायावती किसी भी तरह की राजनीतिक समझौते और मोल-भाव को लेकर मुलायम के साथ काफी स्पष्ट और मुखर थीं .
सपा-बसपा की इस राजनीतिक जुगलबंदी ने मुलायम सिंह यादव को यूपी की सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया. इस नई बनी व्यवस्था में मायावती ने अपने पास कम प्रोफाइल रखी. ऐसा करने की सलाह मायावती को कांशीराम ने खुद दिया था. क्योंकि एक ओर जहां मुलायम सिंह यादव उस दौर में महिला राजनेताओं से सावधानी बरत कर चल रहे थे, तो वहीं दूसरी ओर मायावती किसी भी तरह की राजनीतिक समझौते और मोल-भाव को लेकर मुलायम के साथ काफी स्पष्ट और मुखर थीं .
ऐसा वक्त भी आया किप्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए.लेकिन किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और न ही किसी गठबंधन को लेकर बात बन पाई और कुल मिलाकर. राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ चुका था.और समय गुजरता रहा. 1996 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए. किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला और न ही किसी गठबंधन को लेकर बात बन पाई. राज्य राष्ट्रपति शासन की ओर बढ़ चुका था .
जब बसपा ने कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा से हाथ मिला लिया
यह वही वक्त था जब बसपा ने कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा से हाथ मिला लिया और तब दोनों पार्टियों का मकसद भी एक ही था. मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को सत्ता में आने के लिए दोनों को एक दूसरे के समर्थन की आवश्यकता का एहसास हुआ. तत्कालीन यूपी बीजेपी प्रमुख कल्याण सिंह की आपत्तियों के बावजूद पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को इस राजनीतिक संगम में जीत की धारा नजर आई.
गठबंधन सरकार में मायावती को मिली सीख , जब कांशीराम हुए थे सतर्क
हालांकि, मायावती के पहले कार्यकाल के अनुभव से मिली सीख के बाद कांशीराम गठबंधन सरकार की शर्तों को लेकर थोड़े -थोड़े सतर्क भी थे . दोनों पार्टियां मंत्रिपरिषद में बराबर की हिस्सेदारी पर राजी हुईं. स्पीकर का पद बीजेपी के खाते में गया. साथ ही यह भी तय हुआ कि दोनों पार्टियां 6-6 महीने के लिए बारी-बारी से अपना मुख्यमंत्री बनाएंगी.
गठबंधन सरकार में कांशी राम को मायावती पर काफी भरोसा भी था , पर आडवाणी व वाजपेयी को नहीं थी उम्मीद
राजनीतिक रूप से कांशीराम को मायावती पर काफी भरोसा था.और वो वह अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते थे. वहीं दूसरी ओर आडवाणी और वाजपेयी को मायावती पर भरोसा नहीं था. वे चाहते थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कांशीराम खुद बैठें. इससे पहले कि गठबंधन अंतिम रूप ले पाता उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. इसलिए, उन्होंने दूसरी बार मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती को चुना. लगातार हार से हताश मायावती का सितारा एक बार फिर चमक उठा. राज्य से राष्ट्रपति शासन खत्म करने के लिए बीजेपी ने मुख्यमंत्री के तौर पर उनका समर्थन किया.
21 मार्च 1997 को मायावती ने दूसरी बार मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल शुरू किया. भाजपा नेता कल्याण सिंह इस बात से नाराज थे. उन्होंने BJP और BSP के बीच हुए इस राजनीतिक सौदे को अनुचित करार दिया. वह दोनों दलों के बीच मंत्री पद के बराबर बंटवारे के विरोध में थे. क्योंकि, भाजपा के पास बसपा से 100 सीटें अधिक थीं. कल्याण सिंह पिछड़े वर्ग के एक मजबूत नेता थे और वह मायावती की सरकार में नंबर 2 के पायदान को लेकर असहज थे. इसके साथ ही मायावती को इस बात का भी एहसास हो चला था कि अगर यूपी की राजनीति में अपनी जगह बनानी है तो उन्हें यादव नेता मुलायम सिंह और लोध नेता कल्याण सिंह से पार पाना होगा. रास्ता कठिन था, क्योंकि दोनों ने लंबी राजनीतिक पारी खेली रखी थी.
मायावती से कहा था उनका छह माह का शासन छह साल जैसा होगा : कांशीराम
उधर, कांशीराम ने भाजपा के तत्कालीन दो शीर्ष नेताओं लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी से बसपा की भूमिका पर चर्चा कर ली थी. उन्होंने दोनों को स्पष्ट कर दिया था कि बसपा का फोकस सामाजिक परिवर्तन और बहुजन समाज को आर्थिक रूप से मजबूत करने पर रहेगा. कांशीराम ने एक बार बताया था, ‘मैंने मायावती से कहा था कि अपने छह महीने के शासन के दौरान उन्हें छह साल के बराबर जैसे परिणाम हासिल करने होंगे. बसपा के एजेंडे को बड़े पैमाने पर लागू करना होगा.’ हालांकि, आगे चलकर चीजें वैसी नहीं हुईं जैसा कि दोनों पार्टी के नेताओं ने उम्मी0द की थी. प्रदेश में पार्टी का चेहरा बन चुके दोनों दलों के नेता अपनी पहचान खोना नहीं चाहते थे.
मायावती ने इस बारे में कहा था, ‘हमारे समझौते के अनुसार तय हुआ था कि छह महीने तक बीएसपी शासन करेगी और स्पीकर बीजेपी का होगा. फिर अगले छह महीने तक बीजेपी शासन करेगी और स्पीकर बीएसपी का होगा. लेकिन, बीजेपी ने ऐसा नहीं किया. बाद में भाजपा, बसपा को स्पीकर का पद देने से मुकर गई और इसीलिए हम अलग हो गए. उन्होंने कहा, हमारा स्पीकर आपका स्पीकर है, जो हमें स्वीकार्य नहीं था. बसपा ने इसका विरोध किया. बीजेपी ने जो बोया था, जल्द ही उसे वही काटना था.’ 1999 में एनडीए का हिस्सा होते हुए भी मायावती की पार्टी वाजपेयी सरकार के खिलाफ खड़ी हो गईं. मायावती ने कहा, ‘अगर हमने उन्हें पहले से यह बता दिया होता, तो वो हम पर दबाव बनाते. इसलिए मैंने अपने पत्ते नहीं खोले थे. विश्वासघात का जवाब विश्वासघात से देना पड़ता है.’
बसपा के पांच सांसदों का समर्थन एनडीए को मिल जाता तो वाजपेयी सरकार बच जाती
बसपा के पांच सांसदों का समर्थन एनडीए को मिल जाता तो वाजपेयी सरकार बच जाती. क्योंकि, संसद की पटल पर अटल सरकार सिर्फ एक वोट से अपना बहुमत साबित नहीं कर सकी थी 1999 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के साथ मिलकर वाजपेयी सरकार को गिराने के लिए काम कर चुके सुब्रह्मण्यम स्वामी बताते हैं, ‘मायावती के पास पांच सांसद थे, इसलिए मैं उनका समर्थन मांगने गया था. उन्होंने साथ देने का भरोसा दिया. लेकिन, इस शर्त के साथ कि मतदान खत्म होने तक आप मुझसे न मिलें. उन्हें डर था कि अगर उन्होंने NDA को वोट नहीं दिया तो बीजेपी उनकी पार्टी को तोड़ सकती है. इसलिए मैं मायावती से बिल्कुल नहीं मिला और उन्होंने अपना वादा निभाया.’ इस प्रकार, तीन महिला नेताओं – AIADMK प्रमुख जयललिता, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और बसपा सुसुप्रीमो मायावती- ने मिलकर 1999 में वाजपेयी सरकार को गिरा दिया. अगर बसपा के पांच सांसदों का समर्थन एनडीए को मिल जाता तो वाजपेयी सरकार बच जाती. क्योंकि, संसद की पटल पर अटल सरकार सिर्फ एक वोट से अपना बहुमत साबित नहीं कर सकी थी.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की आखिरी उम्मीद
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए यह लोकसभा चुनाव आखिरी उम्मीद बन गया है। 1984 के लोस चुनाव में उप्र में 85 में 83 सीटें जीतकर सबसे शानदार प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस 40 वर्षों के अंदर 2019 के चुनाव में रायबरेली की एक सीट पर सिमट कर रह गई थी। 1984 के चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत के पीछे पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या बड़ी वजह बनी थी। लोगों ने 0कांग्रेस को 51.03 प्रतिशत वोट दिए थे।
इसके बाद भाजपा, सपा और बसपा ने अपना-अपना जनाधार बढ़ाया और 2009 के लोस चुनाव में कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई। इसके बाद मुस्लिमों का वोट बैंक कांग्रेस का साथ छोड़कर सपा के साथ चला गया। बसपा ने भी वंचित समाज के वोट बैंक पर कब्जा कर लिया। भाजपा कांग्रेस के अमेठी के किले को पिछले चुनाव में ही ध्वस्त कर चुकी है।
अगर राहुल रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा और 1998 में कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी।
अगर राहुल रायबरेली से चुनाव हार जाते हैं तो उत्तर प्रदेश की राजनीति से गांधी परिवार का बोरिया-बिस्तर सिमट जाएगा। 1977 और 1998 में कांग्रेस एक भी सीट पर जीत दर्ज नहीं कर सकी थी।