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Lok Sabha Election 2024: चुनावी मौसम में गूंज रहे लुभावने नारे, जानिए किस तरह मतदाताओं पर डालते आ रहे प्रभाव

चुनाव का मौसम आते ही विभिन्न पार्टियां नारों से मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए तरह -तरह के तरीके ईजाद करती हैं। इन्हीं में से हैं लोक लुभावन नारे जो जनता के मनोमष्तिस्क पर गजब का प्रभाव डाल रहा है । वैसे भारतीय लोक तंत्र में इन नारों का इतिहास काफी पुराना है और ये देश में साल 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में से प्रभावित करते रहे हैं। देश के वर्तमान चुनावों के मद्देनजर चुनाव विश्लेष्कों का कहना है कि उक्त नारे न केवल चुनावों में न केवल अंकगणित फिट करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं बल्कि जनमत को दिशा देने का कार्य भी करते हैं। ऐसे नारों का अहम् मनोविज्ञान प्रभाव भी पड़ता है। आईये जानते हैं कि ये किस तरह मतदाताओं को प्रभावित करते हैं ?

By: Abhinav Tiwari  RNI News Network
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Lok Sabha Election 2024: चुनावी मौसम में गूंज रहे लुभावने नारे, जानिए किस तरह मतदाताओं पर डालते आ रहे प्रभाव

Lok Sabha Election 2024 : चुनाव का मौसम आते ही विभिन्न पार्टियां नारों से मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए तरह -तरह के तरीके ईजाद करती हैं। इन्हीं में से हैं लोक लुभावन नारे जो जनता के मनोमष्तिस्क पर गजब का प्रभाव डाल रहा है । वैसे भारतीय लोक तंत्र में इन नारों का इतिहास काफी पुराना है और ये देश में साल 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में से प्रभावित करते रहे हैं। देश के वर्तमान चुनावों के मद्देनजर चुनाव विश्लेष्कों का कहना है कि उक्त नारे न केवल चुनावों में न केवल अंकगणित फिट करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं बल्कि जनमत को दिशा देने का कार्य भी करते हैं। ऐसे नारों का अहम् मनोविज्ञान प्रभाव भी पड़ता है। आईये जानते हैं कि ये किस तरह मतदाताओं को प्रभावित करते हैं ?

Lok Sabha Election 2024 : साल 2024 के चुनावी फाइनल का समय क्या नजदीक आया कि सबकी जुबान पर अबकी बार…मोदी सरकार’ फिर छा गया। याद रहे कि 2014 में यह नारा लोगों की जुबां पर ऐसा छाया कि भाजपा पूरे बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में काबिज हो गई। अब 10 साल बाद इस नारे को विस्तार मिला है-’ और देश भर की फिजा में मोदी नाम की एक इत्र घोल दी गयी है और बहुसंख्यक जनता ढोल नगारों की थाप पर फिर एक बार..फिर मोदी सरकार’ गुनगुना रहे हैं।

जानते हैं इन लोक लुभावन की भूमिका के बारे में

तो ये नारे न सिर्फ चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं, बल्कि जनमत को दिशा देने का कार्य भी करते हैं। इस बाबत लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. एसके द्विवेदी कहते हैं कि ‘चुनावी नारों का बहुत महत्व होता है। कम शब्दों में अपनी बात को प्रभावी ढंग से इन्हीं के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया जाता है। बड़ी संख्या में अशिक्षित लोगों को नारों के माध्यम से ही राजनीतिक दल अपनी बात समझाते हैं।

नारों की लड़ाई, चाहे कांग्रेस हो या भाजपाई

अब जब की देश भर में आम चुनाव का दौर चल रहा है तरह -तरह के नारों की गूंज से भी नारों की लड़ाई है। चुनाव प्रचार करने निकल रहीं भाजपा कार्यकर्ताओं की टोलियां ‘एक ही नारा एक ही नाम, जय श्रीराम जय श्रीराम’ और ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे’ नारे के साथ दिख रहीं हैं तो विरासत टैक्स को लेकर मचे घमाचान के बीच चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मंच से यह कहना कि ‘कांग्रेस की लूट जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी’ अब धीरे-धीरे लोगों की जुबान पर चढ़ रहा है। वहीं कांग्रेस की अगुवाई वाला आइएनडीआइए ‘हाथ बदलेगा हालात’ का चुनावी नारा लेकर मैदान में कूदा है। वह बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की आय दोगुनी न होने के मुद्दे को जोर-शोर से उठा रही है।

नारों की भूमिका पर क्या कहते हैं विशेषज्ञ ?

इस बाबत लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. डीआर साहू कहते हैं कि ‘चुनाव में ये नारे उत्प्रेरक का कार्य करते हैं। ये कहीं न कहीं लोगों को प्रभावित जरूर करते हैं। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, वे अपनी बातों को लोगों तक आसानी से इनकी मदद से पहुंचा देता है।’ आइएनडीआइए ने उत्तर प्रदेश के लिए ‘न्याय का हाथ, सपा का साथ, बदलेंगे यूपी के हालात’ और ‘झूठ का चश्मा उतारिए, सरकार बदलिए-हालात बदलिए’ आदि नारे लोगों के बीच दिए हैं। सपा ‘अबकी बार भाजपा साफ’ का नारा लगा रही है। अखिलेश अपनी चुनावी सभाओं में यह नारा लगाने से नहीं चूकते।

नारों के पीछे मनोविज्ञान भी

लखनऊ विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग की अध्यक्ष प्रो. अर्चना शुक्ला कहती हैं कि ‘चुनावी नारों से पार्टियां अपनी बात रखती हैं। इसे मनोविज्ञान की भाषा में अतिरिक्त सकारात्मक पुष्टि कहा जाता है। चाहे वह कोई दल हो या व्यक्ति विशेष, इसके जरिए लोग उससे सीधा जुड़ते हैं।’ बसपा के नेता अपना भाषण ‘जय भीम-जय भारत’ से शुरू कर अपना परंपरागत वोट बैंक साधने में जुटे हैं। मायावती के भतीजे आकाश आनंद अपनी चुनावी सभाओं में ‘मुझे मुफ्त राशन नहीं, बहनजी का शासन चाहिए’ का नारा जोर-शोर से लगा रहे हैं।

चुनावी मौसम आए तो नारों की बयार भी खूब बहती है। कोई भी चुनाव हो तो उसके तमाम नारे लोगों के मन-मस्तिष्क पर छाते हैं। भाते हैं। वे न केवल सत्ता के द्वार खोलने का जरिया बनते हैं, बल्कि बाहर करने में भी अहम भूमिका निभाते रहे हैं। इस बार भी भाजपा, कांग्रेस, सपा और बसपा के मंचों से नारे गूंज रहे हैं।

जब चुनाव चिह्नों पर बन गए थे जुमले

देश में वर्ष 1952 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी था। जनसंघ का चुनाव चिह्न दीपक था। ऐसे में जनसंघ ने नारा दिया ‘देखो दीपक का खेल, जली झोपड़ी भागे बैल।’ जवाब में कांग्रेस ने नारा दिया ‘दीपक में तेल नहीं सरकार बनाना खेल नहीं।’

‘कांग्रेस लाओ, गरीबी हटाओ’ का नारा चुनाव में कांग्रेस ने लगाया था। आज भी कांग्रेस को उसके विरोधी चुटकी लेकर इसकी याद दिलाते हैं। बसपा प्रमुख मायावती अपने वोट बैंक को आज भी ‘बीएसपी की क्या पहचान, नीला झंडा हाथी निशान’ जरूर बताती हैं। देश में इमरजेंसी के दौरान भी एक नारा लगा था कि ‘जमीन गई चकबंदी में, मर्द गए नसबंदी में।

जब चुनावी नारों ने बदल दी सरकार

‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है।’ इस नारे ने 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था। 2007 के विस चुनाव में बसपा ने ‘चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगेगी हाथी पर’ नारे को बड़ा मुद्दा बनाया। ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु महेश है’। ‘ब्राह्मण शंख बजाएगा हाथी बढ़ता जाएगा’ का नारा देकर सरकार बनाई।

2014 में भाजपा ने नारा लगाया कि ‘अबकी बार मोदी सरकार।’ ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं।’ 2019 में ‘मोदी है तो मुमकिन है’ लोगों की जुबां पर रहा। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भाजपा ने दिया फिर इसमें ‘सबका विश्वास’ और ‘सबका प्रयास’ भी चरणबद्ध ढंग से जोड़ा। उधर, कांग्रेस ने 2004 में भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ नारे की हवा निकाल दी थी।

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