यदि रबी की फसल (गेंहू, आलू, तोरिया ,सरसों) के लिए अपने खेत को खाली रखा है तो मौसम देखकर आप ढैचा का फसल भी लगा सकते हैं। यही नहीं अगर जल-जमाव या बाढ़ के चलते किसी क्षेत्र की फसल नष्ट हो चुकी है तो भी मौजूदा समय में वहां ढैचे की खेती सबसे आसान विकल्प है।
ढैचा से न केवल रबी की फसलों का उत्पादन अच्छा होगा,बल्कि उर्वरक खासकर नाइट्रोजन कम लगने से खेती की लागत भी करीब 25 फीसद तक घट जाएगी। पर उपज इसी अनुपात में बढ़ जाएगी। वहीं जमीन में कार्बनिक तत्त्वों की वृद्धि से लंबे समय में भूमि की भौतिक संरचना बदलने से होने वाला लाभ से मिलने वाला बोनस आपके आय के लिए भी बोनस होगा। जैविक खेती के लिए ढैंचा के साथ हरी खाद की अन्य फसलें संजीवनी साबित होने वाली हैं। पूर्व उप निदेशक भूमि संरक्षण डॉक्टर अखिलानंद पांडेय के अनुसार रबी की फसलों के लिए अब भी ढैचा खेतों में बोने के लिए पर्याप्त समय है।
ढैचे की खूबियों के ध्यान में रखकर ही योगी सरकार लगातार किसानों को ढैचा और हरी खाद की अन्य फसलों को बोने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। इनके बीजों पर 50 फीसद छूट भी दे रहे है। इस साल भी प्रति किलो ढैचा का दाम 90 रुपए था। लेकिन, इस बार अनुदान की राशि को घटाकर कृषि केंद्रों पर पोओएस मशीन से विक्री की गई है। पहले किसानों को पूरा दाम देना पड़ता था। अनुदान की राशि संबंधित किसान के खाते में बाद में डीबीटी के रूप में जाती थी।
डॉक्टर पांडेय ने कहा कि सरकार के प्रयासों से पिछले दो दशकों में किसान हरी खाद (ढैचा, सनई, उड़द एवं मूंग) की उपयोगिता को लेकर जागरूक हुए हैं। ऐसे में इनके बीजों की मांग भी बढ़ी है। प्राकृतिक एवं जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के लिए प्रतिबद्ध योगी सरकार भी भूमि में कार्बनिक तत्वों को बढ़ाने के लिए हरी खाद को प्रोत्साहित करने में लगी हुई है। इन सबमें हरी खाद के लिहाज से सबसे उपयोगी ढैचा की फसल ही है।
ढैचा की फसल की जड़ों में ऐसे जीवाणु होते हैं जो हवा से नाइट्रोजन लेकर मिट्टी में स्थिर कर देते हैं। इसका लाभ अगली फसल को मिलता है। उनके मुताबिक कार्बनिक तत्व मिट्टी की आत्मा होते हैं। भूमि में ऑर्गेनिक रूप से इसे बढ़ाने का सबसे आसान एवं असरदार तरीका है हरी खाद। कार्बनिक तत्वों की उपलब्धता खुद में सभी फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में सहायक होती है। साथ ही यह रासायनिक खादों के लिए भी उत्प्रेरक का काम कर उसकी क्षमता को बढ़ाती है।
खेत खाली न रहने से अगली फसल में खर-पतवारों का प्रकोप भी कम हो जाता है। इससे उर्वरता के अलावा संबंधित भूमि में जलधारणा, वायुसंचरण व लाभकारी जीवाणुओं में वृद्धि होती है। लगातार फसल चक्र में इसे स्थान देने से क्रमशः भूमि की भौतिक संरचना बदल जाती है।
इफको के मुख्य क्षेत्र प्रबंधक डा. डीके सिंह के अनुसार अगर हरी खाद के लिए ढैचा बोया गया है तो फसल की पलटाई बोआई के लगभग 6-8 हफ्ते बाद फूल आने से पहले कर लें। इसके बाद खेत में पानी में लगा दें। फसल का ठीक तरीके से और जल्दी डीकंपोजिशन (सड़न) हो, इसके लिए फसल पलटने के बाद और सिंचाई के पहले प्रति एकड़ 5 किलोग्राम यूरिया का बुरकाव भी कर सकते हैं। फसल के अवशेष करीब 3-4 हफ्ते में सड़ जाते हैं। इसके बाद अगली फसल की बोआई करें। प्रति हेक्टेअर खेत में 60-80 किग्रा बीज लगता है।
उपलब्धता व जरूरत के अनुसार इनमें से किसी का भी चयन कर सकते हैं। इसमें से ढैचा एवं सनई हरी खाद के लिहाज से सर्वाधिक उपयुक्त हैं। मूंग एवं उड़द की बोआई से हरी खाद के साथ प्रोटीन से भरपूर दलहन की अतिरिक्त फसल भी संबंधित किसान को मिल जाती है। अलबत्ता इनके लिए खुद का सिंचाई का संसाधन होना जरूरी है। प्रति हेक्टेअर 15-20 किग्रा बीज की जरूरत होती है।